Monday, January 23, 2017

तो फिर कहना.......


तू मुझे याद करे और
मैं महसूस न करूं तो कहना.
मैं रोऊं, और
आंखें तेरी ना छलक जाएं तो कहना.
इतना चाहा है तुझको, कि लोग तुझे देखें,
और नजर मैं ना आऊं तो कहना.
प्यार का मेरे इम्तहान लेकर तो देख,
प्यार पर गुमान ना हो जाये तो कहना.
मुश्किल की घडी में पलकें झुका के तो देख,
मेरी तस्वीर तुझे नजर न आये तो फिर कहना.
कभी कहीं रुक कर तू इंतज़ार तो कर,
तू मुझे अपने सामने न पाए तो कहना.
तू मुझे याद करे, और
मैं महसूस न करूं तो कहना.
-    शशि मोहन 

Tuesday, August 9, 2016

हिमालय की रक्षा जरूरी

सांकेतिक फोटो 

-    शशि मोहन रवांल्‍टा

पहाड़ों से पलायन हो रहा है, इसलिए चिंतन भी जरूरी है। चिंतन होगा, तो मनन भी होगा। मनन होगा तो मंथन भी होगा। पलायन रोकने के लिए हम चिंतित होंगे, तो चार लोगों से बात करेंगे। चार लोग आपस में मिल बैठेंगे तो चर्चा और परिचर्चा होगी। चर्चा-परिचर्चा के बीच सवाल उभरेंगे और उन सवालों के हल खोजने के लिए हम उसकी जड़ तक पहुंचने की कोशिश करेंगे। जब हम किसी चीज की तह तक पहुंचते हैं तो हमें पता चलता है उनकी असली वजह क्‍या है? और ऐसा क्‍यों हो रहा है?   
पहाड़ों से लोग अपने घरों को छोड़कर महानगरों का रुख कर रहे हैं। इसका मतलब पहाड़ों से पलायन हो रहा है। पहाड़ वीरान हो रहे हैं, लोग अपनी आजीविका की खोज में पहाड़ छोड़़ रहे हैं तो कोई अच्‍छी शिक्षा और नौकरी की तलाश में महानगरों का रुख कर चुके हैं या कर रहे हैं। 

उत्‍तराखंड में राज्‍य स्‍थापना के 15 साल के बाद भी स्थिति जस की तस है। आज भी कई ऐसे गांव हैं जहां न तो बिजली है और न ही सड़क। पानी तो वहां कुदरती तौर पर उपलब्‍ध है, लेकिन कुछ गांवों को पानी भी नसीब नहीं हो पाता, खासकर गर्मियों के मौसम में। 

उत्‍तराखंड का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक ढांचा गड़बड़ाया हुआ है। भ्रष्‍टाचार जोरों पर है (जैसे कि आए दिन खबरों में पढ़ने-सुनने या देखने को मिलता है)। एक छोटे से प्रधानी के चुनाव में भी लोग लाखों रुपए खर्च कर रहे हैं, और यह स्‍वाभाविक सी बात है कि अमुख व्‍यक्ति जो किसी चुनाव में पैसा खर्च करके जीतेगा तो उससे आप किस हद तक विकास की उम्‍मीद कर सकते हैं। राजनीति को आजतक सेवा व त्‍याग का पर्याय माना जाता था, वह अब फैशन हो गई है, और जब कोई चीज फैशन बन जाए, तो फिर  उससे जनता की  भलाई की उम्‍मीद बेमानी साबित होती है, क्‍योंकि फैशन तो फैशन होता है। 

उत्‍तराखंड की स्थितियां चरमराई हुई हैं इसलिए वहां हस्‍तक्षेप जरूरी है। हस्‍तक्षेप इसलिए भी जरूरी है कि वहां लोगों को जागरुक करना होगा। लोगों को यह बताना और समझाना होगा कि निकट भविष्‍य में विवेकपूर्ण तरीके से ही कोई फैसला करें। बात चाहे वोट की हो या नोट की? हमको भ्रष्‍टाचार की इस मंडी में बिकना नहीं, बल्कि बुराई के खिलाफ आवाज उठानी है। मातृभूमि व पावन माटी के प्रति समर्पित जुझारू, कर्मठ, स्‍वच्‍छ और ईमानदार छवि के लोगों को जगह-जगह से एकत्रित कर आगे लाने के लिए भी हस्‍तक्षेप जरूरी है। 

हमारी गौरवमयी पंरपराएं और रीति-रिवाज धीरे-धीरे विलुप्‍त होते जा रहे हैं। गांव के गांव खाली हो गए हैं। गांवों की पुरानी परम्‍परा समाप्‍त हो रही है। हमारे बुजुर्गों ने गांव इसलिए बनाए थे कि हम एक कुटुंब और एक थाती के रखवाले के रूप में मिल-जुलकर एक दूसरे का दु:ख-दर्द समझें। यही वह सुखद परिपाटी है जिसके चलते गांव में हम एक दूसरे के दु:ख-दर्द में शरीक होते हैं इसलिए वह गांव हैं। लेकिन वहां भी अब आत्‍मकेंद्रित, स्‍वार्थी और दिखावे वाले शहरी जीवन (फ्लैटि संस्‍कृति) के छींटे यदा-कदा पड़ने लगे हैं। शहरों में जहां एक दूसरे को यह पता नहीं होता कि हमारा पड़ोसी कौन है। इस शहरी नितांत वैयक्तिक (फ्लैटि) संस्‍कृति की छाया हमारे गांवों में न पड़े इसलिए वहां खाली इवेंट के रूप में नहीं, बल्कि संवेदनाओं से जुड़कर लगातार ग्राम सम्‍मेलनों का आयोजन जरूरी है। कुछ गांवों में ऐसे ग्राम सम्‍मेलन बहुत सफल हो रहे हैं, जो एक सुकून और आशा का भाव जगाने वाले हैं। 


हिमालय प्राकृतिक आपदाओं के बोझ से कराह रहा है। वहां के लोग भयभीत हैं। घंटे-दो घंटे लगातार बारिश होने से वे अपनी जिंदगी के अस्तित्‍व को लेकर ही खौफजदा हो जाते हैं। उनके आंखों के सामने बीते हुए समय की प्रकृति की निर्दयतापूर्ण यंत्रणाएं और विभीषिकाएं उभर आती हैं जो उन्‍होंने देखे और झेले हैं। इन सब प्राकृतिक आपदाओं के लिए कौन जिम्‍मेदार है? इसके लिए प्रकृति के बदलते रुख को जिम्‍मेदार माना जाए या फिर पहाड़ में विकास के नाम पर हो रहे बांधों और सड़कों के निर्माण को जिम्‍मेदार ठहराया जाए? जिनको बनाने के लिए पहाड़ों मे विस्‍फोट किए जा रहे हैं और मलवा नदियों में समाया जा रहा है। 'हिमालय बचाओ और हिमालय बसाओ' इसलिए जरूरी हो जाता है क्‍योंकि आज हिमालय घायल हो रहा है। 'गांव बचाओ और गांव बसाओ' भी जरूरी है क्‍योंकि गांव के अस्तित्‍व पर संकट मंडरा रहे हैं। नारों की वास्‍तविकता जमीन पर उतारने से ही हम अपनी माटी के प्रति प्रतिबद्धता व कृतज्ञता के भाव को जीवंत एवं साकार कर पाएंगे।

Sunday, December 20, 2015

हमारी संस्कृति और कानफोड़ू संगीत यानी संस्कृति की रक्षा



शशि मोहन रवांल्टा

पिछले तीन दिनों से महाकौथिक में शाम को बतौर ए दर्शक मुझे भी जाने का अवसर मिला। पहाड़ से महानगरों में रोजगार की तलाश में पलायन कर गए लोगों द्वारा जब अपनी संस्कृति, समाज और बोलियों के माध्यम से अपने लोगों से रूरू होने का मौका मिलता है, तो अच्छा लगता है। कौथिक में पहाड़ की संस्कृति, वहां की वेशभूषा, खाने पीने की चीजें भी अक्सर देखने को मिलती है, जिससे लगता है मानो पहाड़ ही मैदान पर उतर आया हो। बहुत अच्छा लगाता है तब जब पहाड़ का कोई अपना गाहेबगाहे ऐसे कार्यक्रमों में मिल जाया करता है और बड़ी आत्मीयता और आदर सत्कार के साथ एकदूजे की साधपूछ होती है। संस्कृति को बचाने के लिए महानगरों में अक्सर ऐसे छोटे बड़े कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं और होते रहने चाहिए जिससे कि हम महानगरों में रह रहे अपने बच्चों को अपनी संस्कृति, रीतिरिवाज, भाषाबोली और रहनसहन आदि से परिचित करवा कर उनको पहाड़ के दर्शन करवा सकें, साथ ही उनको अपनी इस संस्कृति को विरासत के रूप में संजोए रखने का संकल्प भी करवाते हैं।

अपनी संस्कृति, रीतिरिवाज और भाषा बोलियों को बचाने के नाम पर राजधानी ​दिल्ली समेत अनेक शहरों में अक्सर छोटेबड़े कार्यक्रम होते रहते हैं, मुझे नहीं पता कि इस तरह के आयोजनों से हमारी संस्कृति को कितना फायदा या नुकसान हो रहा है, लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि इस बहाने हमको एक होने का मौका जरूर मिलता है। महानगरों के इस कंक्रीट भरे जंगल में हमारा जीवन भी इसी शैली का हो गया है, अक्सर सार्वजनिक वाहनों में धक्के खाना अब हमारी आदतों में शुमार हो गया है, एकदो धक्के लग भी जाते हैं तो हमे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। हमारी लाइफ भी इसी रफ्तार के साथ दौड़ती हुई दिखती है।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है, इसलिए हम लोग भी इस परिवर्तन को सहज ही स्वीकारते हैं और पहाड़ों से किसी न किसी बहाने महानगरों की ओर पलायन करते हैं। एकदो दिन के इस तरह के आयोजन करने के बाद हम संस्कृति के सबसे बड़े रक्षक भी हो जाते हैं और इस गुमान से हमारा सीना भी फूलकर 52 इंच का हो जाता है कि हमने अपनी संस्कृति को बचाने के अमुक कार्य को तसल्लीबख्श अंजाम दिया है।

बहुत अच्छी बात है कि इस तरह के आयोजन होते रहे लेकिन इन आयोजनों के समाप्त होने के बाद क्या हम फिर कभी अपनी संस्कृति और भाषाबोली और अपने लोंगो की चिंता करते हैं? क्या हम इन आयोजनों से लौटने के बाद अपने बच्चों के ​साथ इस तरह के कार्यक्रमों पर अपने घरों में कोई चर्चा करते हैं? सही मायने में यदि कहा जाए तो इस कानफोडू गीतसंगीत से हमारी संस्कृति को बचाने की बजाय खत्म होने का डर ज्यादा है, क्योंकि जब भी हम इस तरह के कार्यक्रमों को आयोजित करते हैं तो म्यूजिक के शोरगुल में हमारी संस्कृति और भाषा बोली को बचाने और गाने वाले इन लोगों की आवाज उसमें अक्सर गुम होती चली जाती है।

आप किसी भी कार्यक्रम में गौर फरमायें कि जब भी हमारा कोई गीतकार या गायक अपने गीतों से अपनी मधुर आवाज में गा रहा होता है तो म्यूजिक इन्स्टूमेंट बजाने वाले साथी इतनी तेज से थाप देते हैं कि सिंगर की आवाज कम और इनका हो हल्ला ज्यादा होता है, मैं आज तक यही नहीं समझ पाया कि जब यही लोग स्टूडियों में अपने वाद्य यंत्रों को बचाते हैं तो वहां कितनी तनमयता के साथ गायक के साथ तारतम्य बैठाते हैं, फिर लाइव शो में कानफोडूं संगीत क्यों? क्या इन आयोजनों में हमारा मकसद सिर्फ शोरशराबा करने और लोगों के हो हल्ला करने तक ही सीमित है या फिर हम वाकई अपनी संस्कृति की चिंता करते हैं?


पहाड़ से पलायन हो रहा है इसके लिए हम सब चिंतित हैं, हमारे कुछ साथी इस पलायन को रोकने के लिए अपनेअपने स्तर पर जितना हो सके प्रयास कर रहे हैं, जिन प्रयासों के सार्थक परिणाम हमको देखने को मिल जाते हैं। मेरा मानना है कि जितने भी लोग हम महानगरों में किसी न किसी बहाने अपना घर छोड़कर आए हैं यदि साल में 4 से 6 बार हम अपने गांवों में जाएं और वहां के विलुप्त होते तीज त्याहारों को बड़ी धूमधाम के साथ मनाएं तो यह एक सार्थक पहल हो सकती है और हमारी आने वाली पीढ़ी को भी अपने गांव की मिट्टी और संस्कृति से रूरू होने का अवसर मिलेगा और यदि महानगरों की तर्ज पर हम अपने गांवों में ऐसे बड़े आयोजन कर पाएं तो निश्चित ही हमारी संस्कृति बचेगी और हमारे बच्चों को भी अपनी जड़ों से जुडने मौका मिलेगा। इसी के साथ महानगरों में संस्कृति बचाने और बसाने के लिए प्रयासरत आयोजकों को बहुतबहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।

Wednesday, November 25, 2015

धनधान्य से परिपूर्ण है भिलंगना घाटी
- शशि मोहन रवांल्टा

घुत्‍तू बाजार का मनोहारी दृश्‍य

टिहरी जनपद के घुत्‍तू भिलंग घाटी के पंवाली-त्रियुगीनारायण मार्ग पर स्थित ऋषिधार गांव बहुत ही रमणीक है। ऋषिधार गांव का प्राचीन नाम ऋषिद्वार है।पंवाली से त्रियुगी नारायण होते हुए कर्णप्रयाग और उसके बाद बद्री-केदार का परंपरागत मार्ग इसी गांव से होकर जाता है। ऋषिधार प्राचीन काल में ऋषियों की तपस्‍थली बाताई जाती है। ऋषिधार यानि धार के ऊपर ऋषियों की तपस्‍थली। ऋषिधार गांव वाकई धार के ऊपर है, गांव में मकान भी इसी स्थिति में हैं और बहुत ही सुंदर, मनमोहक है।
सूर्यप्रकाश सेमवाल जी ने जब अपने गांव के बारे में बताया तो मेरी जिज्ञासा और भी बढ़ी। उन्‍होंने बताया कि यहां कभी ऋषियों की तपस्थली  थी, यहां बूढ़ा केदार से होते हुए परम्परागत चार धाम के यात्री पीडब्ल्यूडी की सड़क के रास्ते मार्ग से जाते हैं। मुख्य बाजार घुत्तू से एक मार्ग देवलिंगगंगी होते हुए खतलिंग और सहस्रताल की ओर जाता है तो दूसरा रानीडांगऋषिधारसटियालामल्ला गवांणा की सीमा को स्पर्श करता हुआ पंवाली की ओर जाता है। भिलंगना घाटी से ही पांडवों ने खतलिंग की यात्रा की थी। घुत्‍तू भिलंग घाटी का यह गांव बहुत ही प्रसिद्ध है, यहां के शास्‍त्री, आचार्य और परंपरागत कर्मकांडी पंडित पूरी घाटी में मशहूर हैं। गांव के वयोवृद्ध आचार्य पंडित नत्‍थी लाल शास्‍त्री जी हैं। शास्‍त्री जी बहुत सरल और मृदुभाषी हैं जो लगभग 80 वर्ष की आयु के हैं। इनके नाम उत्तराखंड के कई जिलों सहित इस क्षेत्र में भी लगभग 5000 (पांच हजार) भागवत, देवीभागवत, शिवपुराण व अन्‍य सप्ताह कर्म दर्ज हैं। शास्‍त्री जी ख्‍याति प्राप्‍त और अपनी शास्‍त्र विद्या के लिए बहुत ही प्रसिद्ध हैं। शास्‍त्री जी पहले घुत्तू स्कूल में शिक्षक एवं बाद में आर्मी में धर्म शिक्षक के पद से सेवानिवृत्‍त हैं। मेरा सौभाग्‍य है कि मुझे ऐसे विद्वान मनीषी से मिलने का सुअवसर प्राप्‍त हुआ।

गांव में इस तरह छत पर सुखाया जाता है धान

घुत्तू भिलंग घाटी बहुत ही सुंदर और आकर्षक है, यहां का वातावरण एकदम स्‍वच्‍छ और जल निर्मल है। भिलंगना नदी भले ही देवलंग बांध बनने के बाद कम दिखाई पड़ती है लेकिन सड़क के साथसाथ बहती भिलंगना राहगीरों को अनायास आकर्षित करती है। इस क्षेत्र में रास्ते में रानीगढ़ का प्रसिद्ध मंदिर, घुत्तू में प्राचीन श्री रघुनाथ मंदिर, भैरव मंदिर, सकरोड़ा देवी का मंदिर सहित अनेक छोटेछोटे सिद्धपीठ हैं। इस क्षेत्र का सबसे मान्य और सिद्धपीठ प्राचीन बगुलामुखी पीठ है। जहां बुगीलाधार नामक जगह में 25 से भी अधिक गांवों की मुल्क की देवी जगदी जगदम्बा का भव्य मंदिर है। यहां नवरावत्र के दिन मुझे भी व्यक्तिगत रूप से सिद्धपीठ में मां भगवती की आराधना का सुवअसर मिला। बुगीला से इस पूरे क्षेत्र का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। एक ओर पोरा का डांडा तो दूसरी ओर खतलिंग ग्लेशियर, खैट पर्वत और विशोन पर्वत दिखाई पड़ते हैं। भिलंगना की दो बड़ी सहायक नदियां गवांण गढ़ और चड़ोली गांव के साथ निकलने वाली कनगढ़ नदी भी मोहक लगती है।

धान की खेती के लिए मशहूर है यह सेरा

     भिलंगना के गांव धनधान्‍य से परिपूर्ण है, यहां हर किस्‍म के अनाज, दालें और विभिन्न किस्‍म की सब्जियां गांववालों द्वारा उगाई जाती हैं। गांव के लोग बहुत ही सहज, सरल और मृदुभाषि हैं। मुझे एक रात इस गांव में रहने का सौभाग्‍य प्राप्‍त है।
     यहां के लोगों का पहचान उत्‍तराखंड के विभिन्‍न क्षेत्रों की तरह ही है अन्य व्यवसायों के साथ यहां कई पूर्व सैनिक हैं। महिलाएं साड़ी-ब्‍लॉज, धोती-कुर्ती व सलवार कमीज पहनती है और सिर पर स्‍कार्फ, साफा बांधे (सिर अक्‍सर ढका रहता है) रहती है। पुरुषों का पहनावा पैंट-शर्ट एवं बुजुर्ग लोग कुर्ता-पायजामा और कोट पहनते हैं।

गांव का मुख्‍य बाजार घुत्‍तू भिलंग है। गांव के ज्‍यादातर लोगों ने घुत्‍तू बाजार में अपने मकान बनाए हुए हैं। गांव में युवा आबादी न के बराबर है, क्‍योंकि यहां के युवा अपने बेहतर भविष्‍य, पढ़ाई-लिखाई और रोजगार के लिए गांव के पलायन कर चुके हैं। इनके बच्‍चे ज्‍यादातर हरिद्वार और ऋषिकेश में हैं। यह गांव भी पलायन का दंश झेल रहा है। घुत्‍तू बाजार आसपास के 35 से 40 गांवों का मुख्‍य बाजार है। घुत्‍तू इंटर कॉलेज इन सभी गांवों का एक मात्र शिक्षा का केन्‍द्र है। यहां इटर कॉलेज में छात्रों की संख्‍या 1000 से भी ज्‍यादा है। गांव के लोगों का कारोबार इसी बाजार से चलता है और दैनिक रोजमर्रा की चीजें भी इसी बाजार से उपलब्‍ध होती हैं। टिहरी जनपद का अंतिम सीमांत गांव गंगी है। गंगी गांव के बच्‍चे भी अपनी पढ़ाई के लिए यहां आते हैं। घुत्‍तू से गंगी गांव लगभग 25 किमी की दूरी पर है।

इस क्षेत्र के गांवों में पानी की कमी नहीं, और मेरा मानना है कि जिस गांव में पानी की कमी ना और वहां के लोग मेहनती हों तो वहां की धरती सोना उगल सकती है। गांव का मुख्‍य व्‍यवसाय कृषि और पशुपालन है। पूरे उत्‍तराखंड की तरह यहां भी महिलाएं ही सारा काम करती हैं, जो सुबह से शाम तक काम में व्‍यस्‍त रहती हैं। गांव के मर्द अक्‍सर बाजारों में देखे जा सकत हैं।

कुछ इस तरह काम करती है पहाड़ की महिलाए: अपनी पीठ पर गोबर ले जाती ऋषिधार की महिलाएं


गांव से जब आप नीचे घुत्‍तू बाजर के लिए ऋषिधार से उतरते हैं तो गांव के चारों ओर नजर दौड़ाने पर सुंदर और खेत मानों आपको अपनी ओर आकर्षित कर रहे हों। खेतों की आकृति में यहां का धान का सबसे बड़ा पट्टा 'बित्ती का सेरा' सबसे बड़ा धान का उत्पादक माना जाता है।  इन खेतों में अनाज, गेहूं, जौ, तिल, और विभिन्‍न प्रकार की दालें पर्याप्‍त मात्रा में पैदा होती हैं। यहां की खेती बहुत ही उपजाऊ है, लेकिन खेती आज भी परंपरागत और पुराने ढंग से ही होती है। यदि इस क्षेत्र के लोग रवांई घाटी के लोगों की तरह नकदी फसलों जैसे टमाटर, मटर, आलू, प्‍याज, अदरक की खेती करना शुरू कर दें तो यह क्षेत्र रवांई घाटी की तर्ज पर उत्‍तराखंड ही नहीं बल्कि पूरे भारत में एक अपनी एक विशिष्‍ट पहचान बना सकता है, क्‍योंकि इस क्षेत्र में पानी पर्याप्‍त मात्रा में उपलब्‍ध है और यहां सिंचाई वाली खेती पहली से ही होती आ रही है बस जरूरत है तो आधुनिकीकरण की। 

वरिष्‍ठ साहित्‍यकार डॉ. हेमचन्‍द्र सकलानी, आचार्य पं. नत्‍थी लाल शास्‍त्री एवं शशि मोहन रवांल्‍टा

Wednesday, October 21, 2015



डॉ. कलाम के बहाने, घुत्‍तू भिलंग घाटी की सैर...
शशि मोहन रवांल्टा

घुत्‍तू भिलंग घाटी
   
पिछले सप्‍ताह भिलंग घाटी में जाने को अवसर प्राप्‍त हुआ। मौका था ‘भारतरत्‍न एवं पूर्व राष्‍ट्रपति स्‍व. डॉ. कलाम की जयंती’ (अंतरराष्‍ट्रीय छात्र दिवस) पर ‘राष्‍ट्रीय बाल प्रतिभा एवं वरिष्‍ट नागरिक सम्‍मान समारोह’ का। साथ ही सूर्यप्रकाश सेमवाल और रमेश सेमवाल जी द्वारा बच्‍चों के स्‍वास्‍थ्‍य परीक्षण के लिए स्‍वास्‍थ्‍य कैंप का आयोजन भी किया गया था।

कार्यक्रम में उपस्थित अतिथि

   इस कार्यक्रम के मुख्‍य अतिथि वरिष्‍ठ साहित्‍यकार डॉ. हेमचन्‍द्र सकलानी जी थे। मुझे बतौर अथिति आमंत्रित किया गया था। कार्यक्रम पर्वतीय लोकविकास समिति एवं क्षेत्र के प्र‍बुद्ध लोगों द्वारा आयोजित किया गया था। इस कार्यक्रम में बच्‍चों द्वारा बहुत ही सुंदर और आकर्षक प्रस्‍तुतियां पेश की गईं। कार्यक्रम में स्‍थानीय स्‍कूलों के बच्‍चों ने प्रतिभाग कर सुंदर एवं आकर्षक प्रस्‍तुतियां दी। इस बारे में जब आयोजकों और इंटर कॉलेज घुत्‍तू, भिलंग के प्राचार्य और शिक्षकों से बात हुई तो उन्‍होंने बताया कि यह कार्यक्रम बच्‍चों ने कुछ ही दिनों में तैयार किया है, क्‍योंकि आजकल यहां परीक्षाएं चल रही हैं इस वजह से छात्रों को तैयारी का ज्‍यादा मौका नहीं मिल पाया।
स्‍वागत गान प्रस्‍तुत करतीछात्राएं

     कार्यक्रम की आकर्षक प्रस्‍तुतियों को देखकर मैं अचम्‍भित था। बच्‍चों ने यदि मात्र दो दिन में इतनी सुंदर प्रस्‍तुतियां प्रस्‍तुत कीं। यदि इनकों एक-दो सप्‍ताह का समय मिल गया होता तो कार्यक्रम मेरी कल्‍पना से भी ज्‍यादा आकर्षक होता।
कार्यक्रम की शुरुआत स्‍वागत गान-
आवा श्रीमान आसन बिराजा, सुस्‍वागतम च,
पावन पर्व धेला धमाल, सुस्‍वागतम च, सुस्‍वागतम च,
दानस्‍याणू तैं सेवा स्‍वीकार, छोटा भुलों थैं जियाभोरी प्‍यार
ब्‍यैणियों की जयजयकार, ब्‍यैणियों की जयजयकार
आवा श्रीमान आसन बिराजा, सुस्‍वागतम च…..
    मुझे बतौर दर्शक कई छोटे-बड़े कार्यक्रमों में अक्‍सर जाने का अवसर अक्‍सर प्राप्‍त होता है। हर कार्यक्रम में की अपनी एक पहचान होती है, शायद स्‍वागत गान भी अक्‍सर कार्यक्रमों में गाया अथवा बजाया जाता है, लेकिन इस कार्यक्रम का स्‍वागत गान इस मायने में खास था कि यह पूर्णत: गढ़वाली भाषा में और शब्‍दों पर आप ध्‍यान दें तो बहुत सुंदर शब्‍दों के साथ इसकी रचना की गई है। 

पावन मेरू उत्‍तराखंड गीत की प्रसतुति

     इसके बाद देवताओं पैटावा कैलाश, हिमालय पूजण कैलाश….  गाने तो मुझे बहुत कुछ घूत्‍तु भिलंग घाटी और खतलिंग की घाटियों से रू-ब-रू करवाया। इस गांव में क्षेत्र के देवी-देवताओं, घाटियों और गंगी गांव तथा बद्री-केदार और गंगा-जमुना का बहुत ही सुंदर शब्‍दों में वर्णन किया गया है।
    यकिन मानिए यदि आप ये गीत सुनेंगे तो आपको खुद ही तय कर पाएंगे कि गीत को कितने सुंदर शब्‍दों में वर्णित किया गया है और किस तरह क्षेत्र और उत्‍तराखंड के नदी घाटियों और देवताओं का स्‍मरण किया गया है। इस गीत की खास बात यह भी थी कि यह छात्राओं द्वारा खुद ही गाया गया था। 

                   


पावन मेरू उत्‍तराखंड गीत की प्रसतुति   
आयोजकों द्वारा तीन गीतों को प्रतियोगिता में शामिल किया गया था, जिसमें पहला गीत देवताओं पैटावा, दूसरा पावन मेरा उत्‍तराखंड, गढ़भूमि गढ़देश (ये गीत आपने अक्‍सर आडियो या वीडियो में सुना और देखा होगा) इस गीत में उत्‍तराखंड के वीर-भड़ और क्रांतिकारियों का सुंदर वर्णन किया गया है। जिसमें श्रीदेव सुमन से लेकर माधोसिंह भण्‍डारी और तीलू रौतेली जैसी वीरगंनाओं का बहुत ही सुंदर शब्‍दों में वर्णन किया गया है। प्रतियोगिता का तीसरा गीत था ठंडों रे ठंडों था। इसके बाद पांडव नृत्‍य की बहुत ही सुंदर और मनमोहन प्रस्‍तुति छात्रों ने पेश की, लेकिन यह पांडव नृत्‍य प्रतियोगिता में शामिल नहीं था। 

पांडव नृत्‍य प्रस्‍तुत करते बच्‍चे

     प्रतियोगिता की निर्णायक मंडली ने पावन मेरा उत्‍तराखंड, गढ़भूमि गढ़देश को प्रथम पुरस्‍कार से नवाजा। यह गाना डीजे पर बजाया जा रहा था, लेकिन बच्‍चों ने इस गीत के हर पहलू को साक्षात मंच पर उतारा जिसमें उन्‍होंने श्रीदेव सुमन से लेकर माधोसिंह भण्‍डारी और तीलू रौतेली के पात्रों का सबको दर्शन कराए।
ठंडो रे ठंडों गीत प्रस्‍तुति देती छात्राएं

अंत में....